डा० सत्येन्द्र दुबे* "चिड़िया" शब्द बोलते ही हमारे जेहन में सबसे पहले गौरैया का ही चित्र उभरता है। इसी तरह घोसला शब्द बोलते ही मस्तिष्क में तरह-तरह की आकृति वाले गौरैया-घोसलों का चित्र उभर आता है। कारण यह है कि शिशु-मानव ने अच्छी तरह निकट से और बार-बार गौरैया को ही देखने का अवसर प्राप्त होता है। मानव बस्तियों में गौरैया के घोसले ही बहुतायात में पाये जाते रहे हैं। लोक साहित्य में पशु-पक्षियों का जितना जिक्र मिलता है, उसमें गौरैया मनुष्य के इर्द-गिर्द ही दिखाई पड़ती है, उसका स्थान गाँव में दरवाजे पर नही बल्कि आंगन में इंगित होता है-
"बगिया बोले कोयलिया,
बन मा बोले मोर
नदिया किनारे पपीहा
गौरैया अंगना मोर..............लोक जीवन और संस्कृति से।
चिंचियाना, चहकना, फ़ुदकना, फ़ुर्र हो जाना आदि, चिन्हों के माध्यम से गौरैया हमारी भाषा में उपस्थित चिन्हों के माध्यम से गौरैया हमारी भाषा में उपस्थित है, किन्तु दुखद है कि गौरैया का हमारे लोक गीतों में से लुप्त होते जाना एंव सांस्कृतिक युग के अन्त का भी सूचक है।
अक्षर ज्ञान सीखने वाले बच्चों की किताबों में अब "एन" फ़ॉर नेस्ट, नेस्ट माने घोसला नही मिलता। कल तक हमारे दरवाजे पर लगे बेर के पेड़ पर जो गौरैया के घोसले थे, वे अब वहाँ नही हैं, वे घोसले बच्चों की किताबों से गायब हैं, मैने एक बच्चे से पूंछा-
एन फ़ार?
"नोज"- बच्चे ने कहा
मैने फ़िर पूंछा "एन" फ़ार कुछ और बताओ!
उसने कहा- "निडिल"
मैने फ़िर पूछा कि कोई और शब्द बताओ,
काफ़ी देर बाद वह बच्चा बोला- नेस्ट
मैने पूछा, नेस्ट माने?
जबाव आया- घोसला
-किसका घोसला?
जबाव- चिड़िया का
सवाल- किस चिड़िया का?
जबाव- कौवे का।
एक भावुक जिजीविषा का त्रासद अंत!
घर की मुड़ेर पर बैठा कौआ तथा आँगन में फ़ुदकती गौरैया हमारे लोक-जीवन के साथी और राग-विराग के प्रतिदर्श थे, कौआ रह गया गौरैया गायब हो गयी! यहीं से यह शंका शुरू होती है, कि गौरैया के गायब होने के पीछे पेस्टीसाइड का बढ़ता प्रयोग या डार्विन का विकासवाद कितना सही है, और कितना गलत! इन कारणों का असर केवल गौरैया पर ही क्यों पड़ा, बड़ा प्रश्न है?
मेरा मानना है, कि हमारा लोक-जीवन जैसे-जैसे नगरीय जीवन की ओर अग्रसर होता गया, वैसे-वैसे कुछ चीजे हम से दूर होती गयीं। टूटते संयुक्त परिवार और नव-वधुओं से खाली पड़े ग्राम-गृह, ये सब इसी परिवर्तन के हिस्से हैं। गौरैया गाँवों में काँटेंदार पेड़ों और कूप वृक्षों में अपना घोसला इस लिए बनाती थी, कि वह हमारे बीच रहे किन्तु हमारे शरारती बच्चों के क्रीड़ा-कौतूहल से भी दूर रह सके।
गौरैया के हमारे साथ बने रहने की परिस्थितियाँ वातावरण आज पहले जैसे नही हैं। वे परिस्थितियाँ और वातावरण हमारे इर्द-गिर्द कितनी मात्रा में उपलब्ध है, गौरैया उतनी दिखाई भी दे रही हैं।
डा० सत्येन्द्र दुबे ( लेखक युवराज दत्त महाविद्यालय में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक है, भारतीय शास्त्रीय संगीत में अभिरूचि, गायन व वाद्य-यन्त्रों की तमाम विधाओं में विशेषज्ञता, लेखक इन दिनों लखीमपुर नगर में रहते है, इनसे 09889830424 पर संपर्क कर सकते हैं)
फ़ोटो साभार: उमेश श्रीवास्तव, ग्राम- वीरसिंहपुर, ईशानगर, खीरी।
nice
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