डा० देवेन्द्र* आदमी का इतिहास जब कभी सही ढ़ग से लिखा जायेगा तो चाहे उसमें चक्रवर्ती सम्राटों और उनकी लड़ाइयों का जिक्र न हो, गौरैया का जिक्र जरूर होगा! बगैर गौरैया, आदमी और उसकी कलाएं, कल्पनाएं, सुख-दुख के किस्से, उसके संगीत, उसकी प्रेम कहानियों के बारे में कुछ जान पाना संभव नही होगा। गौरैया की नन्ही आँखों में एक दिन जरूर लिखा और पढ़ा जायेगा सभ्यता का क्रूर इतिहास।
यह कोई पुरानी बात नही है। अभी कल तक गाँव के हमारे घरों में, हमारे बीच गौरैयों के झुण्ड रहा करते थे। बैलों के हरे चारे और सूखे पुवाल की गन्ध में चहचहांती, उड़ती-फ़ुदकती गौरैया सुबह-सबेरे सूरज की किरणों से पहले ही चली आती थीं। काम से फ़ुर्सत पाकर माँ जब कभी देहरी पर बैठतीं, गिलहरी और गौरैयों का झुण्ड उन्हे घेर लेता था। हमारे चारों तरफ़ बिखरे अन्न के दानों पर ही वो पलती थीं। माँ को विश्वास था कि हमारे अनाम पुरखे गौरैयों की शक्ल में हमें देखने-सुनने आते हैं। कैंसर से असहनीय दर्द से तड़पती-छटपटाती मेरी माँ का चेहरा गौरैया की तरह हो गया था। अन्न के दानों को अपनी नन्ही चोंच में दबाये वे अपने घोसलों में जाती थीं, जहाँ उनके बच्चे चीं...चीं..करते बेसब्री से उनकी प्रतीक्षा करते थे। एक आत्मीय उल्लास का मोहक संगीत हर समय हमारे चरों तरफ़ बजता रहता था। वे हमारे अभावों और संपन्नता के दिन थे। इन्ही चिड़ियों के पंख लेकर माँ के किस्सों और हमारे सपनों में परिया आती थीं। देखा जाए तो हमारा बचपन इन्ही के बीच पला और विकसित हुआ है।
विज्ञान ने प्रकृति के सारे रहस्यों को खोलकर आदमीं को सौप दिया है, दर्प और हठधर्मिता के आंकठ मेम डूबी आज की सभ्यता मनुष्य को खतरनाक रास्तों की ओर ले जा रही है। वर्तमान हमेशा सफ़ल और शक्तिशाली लोगों का होता है। इतिहास सार्थक लोगों का। अगर स्वंम द्वारा किया गया मूल्यांकन ही अन्तिम सच होता तो सटोरियों और गिरहकटों को भी गलत साबित कर पाना ना-मुमकिन होगा। प्रकृति के सारे संतुलन केन्द्रों को रात-दिन लगातार क्षति-ग्रस्त करते हुए चाहे हम खुद को कितना भी श्रेष्ठ कह लें, लेकिन यह तय है, कि हमारे विकास का वर्तमान ढ़ाचा क्षण-प्रतिक्षण मनुष्यता की बची-खुची संभावनाओं को लीलता जा रहा है। मशीनें मनुष्य को विस्थापित कर रहीं है। तकनीक और बाजार के संयुक्त दुश्चक्र में मनुष्य के भीतर से मनुष्यता का विस्थापन भयावह रूप से जारी है। हमने गौरैया के घोसले उजाड़ डाले है। नोच डाले गये उनके मुलायम पंख, जो हमें गर्मी की दुपहरी में अपने ठण्डे स्पर्श से सहलाते थे।
न्यूयार्क और वाशिंगटन की तर्ज पर जगह-जगह उगने वाले कंक्रीट के जंगलों में हमारी सभ्यता का भयावह कब्रगाह तैयार हो रहा है। मृत्यु लेख पर अनिवार्य रूप से दर्ज किया जा चुका है- “एक ऐसी प्रजाति, जिसने अपनी संततियों का सारा हिस्सा खाने के बाद अपनी भूख से तड़प कर सामूहिक आत्महत्या कर ली थी” जीवन के स्रोत सूखते जाएं और जीवन लहलहाता रहेगा- इस पागल कल्पना की गुंजाइस बहुत दूर तक नही रहेगी। प्रकृति के रहस्यों को जान कर उसे बाजार में बेंचना और मुनाफ़ा कमाना सभ्यता है? या वह बोध कि, प्रकृति के असीमित संसाधनों पर अंतत: हमारा अधिकार सीमित ही है? यह तय करना बेहद जरूरी है, कि तकनीकी दक्षता हासिल कर चुका कोई समाज मृत्यु की हद तक गैर जिम्मेदार रहकर सभ्यता और विकास का मानक बनेंगा? या वह प्रकृति पर अपनी निर्भरता को पहचानते हुए, अपनी सीमिति क्षमता और अदम्य जिजीविषा के बल पर उसे बनाये और बचाये रखने के लिए अन्तिम दम तक कृत संकल्प है।
शिक्षा और विज्ञान अगर आज बाजार की दासता स्वीकार कर चुके हैं, तो चाहे जैसे भी संभव हो, सभ्यता और विकास के वास्तविक मूलभूत अर्थों को थोड़े समय के लिए इससे अपने को थोड़े समय के लिए बचाते हुए बाजार से लड़ना होगा। यह अनायास ही नही है, कि मानव रोधी तमाम बुराइयों और अपराधों का उत्सव तथाकथित शिक्षित, सक्षम, सभ्य और सम्पन्न लोगों के भीतर है। बौद्धिक समुदाय निर्लज्ज और खतरनाक हद तक इन्हे समर्थन दे रहा है। यह अनायास ही नही है, कि सभ्यता और विकास के नाम पर कुछ लोग जंगलों पर आधिपत्य के लिए उतावले हैं, ताकि बाजार में उनकी कीमत लग सके। वहीं कुछ अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित गुमराह और व्यवस्था विरोधी नक्सलाइट किस्म के लोग उन्ही जंगलों और जलाशयों को बचाने के लिए रोज-रोज अपने प्राण गवां रहे हैं। वे लोग जो अपनी कुल आमदनी का चौथाई वजट दुनिया के बाजारों से हथियार खरीदने में खर्च करते है, वही उन्हे हिंसक बताते हुए अहिंसा का पाठ पढ़ा रहे हैं, बाजार की नजरों में वे खतरनाक किस्म के लोग है।जिन्होंने गौरैया की तरह संचय और जरूरत से ज्यादा संग्रह को वृत्ति को नही अपनाया है। वे जानते हैं कि जरूरत भर की सूखी लकड़ियों के लिए दूर-दूर तक फ़ैले जंगल का हरा भरा होना जरूरी है। शायद इसीलिए सभ्यता और बाजार की नजरों में वे जंगली और बर्बर हैं।
सभ्यताओं के संघर्ष के नाम पर होने वाले सेमिनारों के सारे बौद्धिक विमर्शों में उनकी दिलचस्पी इस्लिए नही हैं, क्योंकि वे खुद सभ्यताओं के शिकार हैं। वे जानते है, कि आज देश और राजनीति की मुख्य धारा कुछ सटोरियों, विश्व बैंक के पालतू अर्थशास्त्रीयों और माफ़ियों से होकर बाजार के मल मूत्र में लिथद्ई पड़ी है। वे इसलिए भी असभ्य, विकास विरोधी और खतरनाक है, कि जनतांत्रिक सरकारों के क्रूर दमन की वैधानिक शक्ति को ठेंगा दिखाते हुए परमाणु युग के दौर में अपने परंपरागत हथियारों और विश्वासों के साथ जंगलों, नदियों, और चिड़ियों को बचाने के लिए कृत संकल्प है। बाजार और मुनाफ़े में उनकी कोई दिलचस्पी नही। वे जानते है, कि विश्वग्राम की मुड़ेर पर गौरैया और उनके घोसले उजाड़ डाले जाते हैं।
गौरैया सिर्फ़ किसी पक्षी का नाम नही है, वे ढेर सारी चीजों, जो हमारे बीच से एक-एक कर गायब होती जा रही हैं, उनकी शक्ल, सूरत उनकी आदतें गौरैयों से मिलती-जुलती होती हैं। गाँवों की सबसे बड़ी त्रासदी है, चरागाहों और पोखरों के निशान मिट जाना। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि अब वहाँ झुण्ड के झुण्ड बकरियां, गाय, भैंसे, नही दिखतीं। ये सब गाँव के सामुदायिक जीवन की रीढ़ थे। वहीं गौरैया फ़ुदकती थी। उनके सहवास और मैथुन की आदिम गंध से बंसत महकता था। धीरे-धीरे और एक-एक कर वहाँ से वे सारी चीजें, जो पेड़ों और चिड़ियों को आदमी से जोड़ती थी, विस्थापित होती जा रही हैं। विकास और सभ्यता ? के इस क्रूर दस्तक से डरी-सहमी गौरैया अब न तो कभी हमारी स्मृतियों में चहचाती है, न सपनों में फ़ुदकती है। ढेर सारी मरी हुई गौरैयों और परियों के पंख हमारे विकास पथ पर नुचे-खुचे, छितराये पड़े हैं। सभ्यता के तहखाने में बन्द हमारी उदासी हमारी सांसों में भरती जा रही है। शायद अब कभी इन मुड़ेरों पर गौरैया नही आयेगी।
डा० देवेन्द्र (लेखक प्रसिद्ध कथाकार हैं, लखीमपुर खीरी के युवराज दत्त महाविद्यालय में हिन्दी विभाग में प्रवक्ता, कथादेश पत्रिका के प्रेम विशेषांक के अतिथि संपादक, इन्हे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा यशपाल सम्मान व इन्दु शर्मा कथा सम्मान से पुरस्कृत किया गया है, शहर कोतवाल, नालंदा पर गिद्ध व क्षमा करे हे वत्स! इनकी लोकप्रिय कहानियां हैं, इनसे pipnar@yahoo.co.in व सेलुलर 09451237049 पर संपर्क कर सकते हैं।)
©गौरैया फ़ोटो साभार: सतपाल सिंह, मोहम्मदी, खीरी
जब आबादी ऐसे बढ़ेगी तो और क्या होगा..
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली एवं विचारणीय आलेख.
ReplyDeleteसच है, गौरैया तो केवल प्रतीक है उन तमाम चीज़ों, जीवों की जो एक-एक कर विलुप्त होते जा रहे हैं. प्रभावी आलेख. आभार.
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली!
ReplyDeletekisi wad ki awasyakta hi kakan hai, jab manushyata ko hi khatra paida ho gaya hai. Aise mahaul main Dr Devendra asani se darpan dikha dete hain.
ReplyDeleteवर्तमान हमेसा समर्थ और शक्तिशाली लोगों का होता है और इतिहास सार्थक लागों का .शायद गौरैया कि मौजूदगी वाकई सार्थक थी इसलिए तो वह आज इतिहास के पन्नों में सिमट रही है .डॉ साहब ने सच लिखा है !इन्सान ने हमेसा ताकतवर बनने कि कोशिश की,सार्थक बनने की बात तो कभी सोची हो नहीं .और हा गौरैया को मै अपने नजरिये से सर्वहारा समझता हू .इस सर्वहारा के हकों को भी इंसानी वर्ग के बुर्जुआजी पैतरों और सजिसों ने हड़प लिया .सच तो है कि गौरैया वर्ग संघर्ष का शिकार हो गई .अब वो गाय तो थी नहीं कि जिसके लिए भगवा रंग के झंडे हवा में लहरा दिए जाते और चाँद मिनटों के भीतर समूची सभ्यता और संस्कृति खतरे में पड़ जाती .और न ही उसने किसी को इतिहास में दुश्मनों से बचाने का किस्सा ही तैयार किया था कि वो किसी धर्म से जोड़ दी जाती .वो तो मराठी भी नहीं बोल सकती है कि राज ठाकरे और महाराष्ट नव निर्माण सेना के रणबांकुरे उसे बचाने कि खातिर सड़कों पर उतर आते .न ही गौरैया लाल सलाम कहती थी कि उसके खातिर समाजवादी खूनी संघर्ष का एलान हो जाता और उसकी जिन्दगी साम्यवाद के लिए अहम् बन जाती ...गौरया का मतलब है कामन मेन.धत्त ...स्टूपिड कमान मेन.!अगर वो होती भी तो आज भाई लोग उसकी जनसँख्या बढने का रोना रो कर वन विभाग से उसे मरने का लाइसेंस लेने पहुच गए होते .वो नहीं है तो किसी को क्या तकलीफ है .आम आदमी कि तरह गौरैया के लिए शायद इतिहास में भी जगह नहीं है .क्योकि इस बदबूदार इतिहास का रचयिता तो वाही मानव है जो पीढ़ियों के बीच संघर्सों को जन्म देता आया है ,जिसने किसी महिला के सतीत्व को परखने कि खातिर आग सजाई है और जो ये इजाजत भी देता है कि अपने (धर्म का नाम लेना ठीक नहीं है )कि खातिर मरना भी अच्छा है .तो गौरैया अगर तुम तक मेरी आवाज पहुच रही हो तो एक बात याद रखना ..तुम डॉ देवेन्द्र,केके मिश्र और विवेक सेंगर यहाँ तक कि मेरी बात और पुकार को मत सुनना .!इस बार आना तो तुम्हारे साथ किसी धर्म जाती और पार्टी का नाम जरुर जुड़ा हो ...फिर देखना तुम्हारा नाम और फोटो सिर्फ तम्बाकू के पुच पे नहीं किसी धर्म ध्वजा या मतदान पत्र पर होगा ...फिर तुमको कोई गायब नहीं कर पायेगा
ReplyDeleteवर्तमान हमेसा समर्थ और शक्तिशाली लोगों का होता है और इतिहास सार्थक लागों का .शायद गौरैया कि मौजूदगी वाकई सार्थक थी इसलिए तो वह आज इतिहास के पन्नों में सिमट रही है .डॉ साहब ने सच लिखा है !इन्सान ने हमेसा ताकतवर बनने कि कोशिश की,सार्थक बनने की बात तो कभी सोची हो नहीं .और हा गौरैया को मै अपने नजरिये से सर्वहारा समझता हू .इस सर्वहारा के हकों को भी इंसानी वर्ग के बुर्जुआजी पैतरों और सजिसों ने हड़प लिया .सच तो है कि गौरैया वर्ग संघर्ष का शिकार हो गई .अब वो गाय तो थी नहीं कि जिसके लिए भगवा रंग के झंडे हवा में लहरा दिए जाते और चाँद मिनटों के भीतर समूची सभ्यता और संस्कृति खतरे में पड़ जाती .और न ही उसने किसी को इतिहास में दुश्मनों से बचाने का किस्सा ही तैयार किया था कि वो किसी धर्म से जोड़ दी जाती .वो तो मराठी भी नहीं बोल सकती है कि राज ठाकरे और महाराष्ट नव निर्माण सेना के रणबांकुरे उसे बचाने कि खातिर सड़कों पर उतर आते .न ही गौरैया लाल सलाम कहती थी कि उसके खातिर समाजवादी खूनी संघर्ष का एलान हो जाता और उसकी जिन्दगी साम्यवाद के लिए अहम् बन जाती ...गौरया का मतलब है कामन मेन.धत्त ...स्टूपिड कमान मेन.!अगर वो होती भी तो आज भाई लोग उसकी जनसँख्या बढने का रोना रो कर वन विभाग से उसे मरने का लाइसेंस लेने पहुच गए होते .वो नहीं है तो किसी को क्या तकलीफ है .आम आदमी कि तरह गौरैया के लिए शायद इतिहास में भी जगह नहीं है .क्योकि इस बदबूदार इतिहास का रचयिता तो वाही मानव है जो पीढ़ियों के बीच संघर्सों को जन्म देता आया है ,जिसने किसी महिला के सतीत्व को परखने कि खातिर आग सजाई है और जो ये इजाजत भी देता है कि अपने (धर्म का नाम लेना ठीक नहीं है )कि खातिर मरना भी अच्छा है .तो गौरैया अगर तुम तक मेरी आवाज पहुच रही हो तो एक बात याद रखना ..तुम डॉ देवेन्द्र,केके मिश्र और विवेक सेंगर यहाँ तक कि मेरी बात और पुकार को मत सुनना .!इस बार आना तो तुम्हारे साथ किसी धर्म जाती और पार्टी का नाम जरुर जुड़ा हो ...फिर देखना तुम्हारा नाम और फोटो सिर्फ तम्बाकू के पुच पे नहीं किसी धर्म ध्वजा या मतदान पत्र पर होगा ...फिर तुमको कोई गायब नहीं कर पायेगा
ReplyDeleteसर, बेहद प्रभावशाली लेख, हमेशा की तरह, लेकिन गौरैये के बहाने आपने अपनी
ReplyDeleteयहाँ अमरीका मे विलियम्सबर्गे मे सुबह के ६ बज रहे है। मै अपनी ससुराल मे हू, उनका घर'क्न्ट्री साईड' मे है और सुबह नींद चिडियों की चहचहाट से ही खुली, कल रात भोजन पर जाते समय खेतों मे सैकडों हिरन दिख गये। लेकिन कब तक रहेगा यह सब? मानव आबादी व पशु आबादी मे संघ्रष है। पशुओं को पीछे हटना ही पडेगा -- हम अति विकसित जो हैं। सर आपने गौरेया से आगे जा कर बहुत कुछ कह दिया है। दिखने मे विकसित मानव संभ्यता, शायद जर्जर हो चुकी है, मृत्यू कि प्रतीक्षा करती, बची खुची आक्सीजन खींच रही है।
good article sir...
ReplyDeleteदेवेन्द्र ने अपनी कहानियों की तरह ही यह लेख मर्मस्पर्शी संवेदनशीलता के साथ लिखा है। गौरैया के विलुप्त होते जाने के तथ्य को एक रूपक की तरह प्रयोग करने से लेख का वितान व्यापक हो गया है। अफसोस कि मनुष्य ही मानवीयता का सबसे बड़ा दुश्मन बन कर उभरा है।
ReplyDeletenice
ReplyDelete