गौरैया मेरे आंगन में आती थी...जब अम्मा धुलने के बाद गेहूं सूखने को चादर पर फैलाती थीं...लेकिन तब बाबूजी के कदमों की धमक सुनकर वह उड़ जाती थी। मेरे भी मुंह से निकलता था...अम्मा देखो ये चिडिय़ा सारा गेहूं खा जाएगी...अम्मा का जवाब रहता था...अरे खाने दो इसे...भंडार थोड़े ही खत्म हो जाएगा। तब हमें नहीं मालूम था कि अम्मा के यह कहने के पीछे क्या मतलब है। लखीमपुर में हम चार भाई और एक बहन घसियारी मंडी में ईश्वरचंद्र की चक्की के पास कुदेशियाजी के भारी-भरकम मकान में ऊपर वाले पोर्सन में रहते थे। मेरे परिवार में भी एक गौरैया थी...मेरी बहन और मुझसे बड़ी। उसे अब गौरैया इसलिए कहूंगा कि जिस तरह से गौरैया सनातन सभ्यता में शुभ मानी गई है, उसी तरह से मेरी बहन गौरैया भी परिवार के लिए शुभ थी। जैसे गौरेया आती थी और आंगन में चादर पर सूखने को बिछे गेहूं पर उछल-कूद किया करती थी, सब उस चिडिय़ा को फुदकने देना चाहते थे, यह देखकर सबके मन को शांति मिलती थी। अम्मा वहीं बैठी रहती थी, लेकिन चिडिय़ा उनसे डरती नहीं थी। वैसे ही मेरी बहन थी...जिसे अब मैं गौरेया कहता हूं। सबकी लाड़ली...सबकी दुलारी। घर में जो घुसता था...बस मेरी गौरैया जैसी बहन का नाम लेते घुसता था। सबकी जान उसमें बसती थी...चाहे बाबा थे, चाहे चाचा। बाबूजी और भाइयों के बारे में तो पूछिए मत। दिन गुजरते रहे...हम लोगों को कुदेशिया जी का मकान छोडऩा पड़ा क्यों कि एक दिन उस पुराने मकान की छत धंस गई और मेरी गौरैया यानी बहन छत के साथ ही नीचे चली गई। चोट लगी थी गौरैया को और दर्द पिता जी को हो रहा था...तुरंत ही फैसला किया और दूसरा किराए का मकान तलाशना शुरू कर दिया। इसके बाद सब नई बस्ती में हकीम जी की गली में आकर रहने लगे। यहां कुछ दिनों बाद ही हम लोग ऊपर के पोर्सन में रहने लगे। जानते हैं हमारे घर के पीछे रोडवेज के एक ड्राइवर साहब का मकान था...नाम शायद रहीस खां था...ठीक से याद नहीं आता है....पंद्रह, सोलह साल पहले की बात जो है। उनके मकान में एक बड़हल का पेड़ लगा था। उस पेड़ पर हमने एक-दो बार गौरेया को बैठे देखा। फिर तो याद नहीं रहा कि कब हमने गौरैया देखी। साल-दो साल बाद हम अपने गांव जाते हैं तो गौरैया को तलाशते हैं....कभी-कभी ही दिखती है....बिल्कुल मेरी बहन की तरह। मेरी बहन गौरैया भी कभी-कभी दिखती है...कहीं किसी हाट-बाजार में खरीदारी करते हुए...या कहीं और...ठीक वैसे गौरेया चिडिय़ा भी यहां कदा ही दिखती...आंगन में गेहूं सूखने को डालो....इंतजार करो....तब भी नहीं आती है। मेरी बहन गौरेया भी हमसे दूर है और मेरी गौरेया चिडिय़ा भी। एक साल पहले जब मैं बरेली से शाहजहांपुर आया तो यहां भी हमने खुला-खुला सा और बड़ा मकान किराए पर लिया चौक में। सोचा था यहां पत्नी गेहूं सुखाएगी...लेकिन गेहूं सुखाने का मौका यहां आया ही नहीं। दो-तीन महीने बाद जब घर जाता हूं तो बाबूजी आटे की बोरी गाड़ी में लाद देते हैं और चावल भी...तो यहां भी गौरैया को देख पाने की लालसा मेरी पूरी नहीं हो पाई।
वहां गौरेया मेरे घर आए...इसके लिए क्या-क्या जतन किए गए। बाबूजी ने गांव के परिदृश्य से मिलते-जुलते शास्त्री नगर में मकान बनवाया। छत खुली रखी...अम्मा कमजोर हो गईं, लेकिन गेहूं खुद छत पर लेकर जाती हैं और उसे जमीन में ही फैलाती हैं...लेकिन गौरैया मेरे घर आती ही नहीं है। वैसे एक बात और बताऊं जब मेरी बहन गौरैया मेरे घर से गई...तब से मेरे घर में मुसीबतों का अंबार रहा। काफी दिनों के बाद गौरैया के रूप में मेरी भतीजी का जनम हुआ है, तब से मुसीबतें कम हुई हैं...जब मेरे बड़े भाई की मौत हुई...तो गौरैया जानकारी मिलते ही आई, बिना किसी डर के। पूरा दिन साथ रही, दसवां के दिन और तेहरवीं को भी। ऐसा लगा कि अब मेरे घर में भी गौरैया आने-जाने लगेगी...लेकिन परिवार के कुछ लोगों को पसंद नहीं आया...ठीक वैसे ही जैसे लोगों ने अपने घरों से चिडिय़ां के घोसलों को खत्म कर दिया, वैसे ही मेरे घर को आने वाली सड़क पर गौरैया के लिए पाबंदी लगा दी गई। वैसे बड़े भइया की मौत पर करीब चौदह साल के बाद मेरी बहन गौरेया ने मेरे घर में कदम रखे थे...जिसे केवल अहम ने दुबारा आने के लिए रोक दिए....मुझे आज भी और हमेशा ही इंतजार रहेगा...गौरेया के आने का...इस बार मेरी चाहत है...मेरी गौरैया मेरे बाबूजी के कदमों की धमक से न डरे...मेरे परिवार के उन लोगों के अहम से न डरे....मैं भी साहस बटोरना चाहता हूं कि मैं अपने घर का आंगन इतना बड़ा बनाऊं कि उसमें कई पेड़ हों, उन पर गौरेया का घोसला हो...कोशिश रहेगी कि अम्मा जब गेहूं सूखने को डाले तो गौरैया फुदक-फुदक कर गेहूं के दानों को चूंगे। यही कामना है...मेरी यह ख्वाहिश पूरी हो...मेरे दुआ जरूर करिएगा।
(विवेक ने जब अपनी रचना मुझे टेलीफ़ोन पर सुनायी तो एक अखबार के आफ़िस की सीढ़ियों पर था, मैं वही रूका रहा पूरी रचना को सुनने के लिए, धीरे-धीरे शब्द अपना जादू बिखेरने लगे, और मैं तन्मयता से उस कल्पनाशीलता, गौरैया का हमारे घरों में दखल...... बेटियों से उनकी तुलना....आदि-आदि. को सुनता रहा,.....सौन्दर्य, करूणा, स्नेह में सरोबार ये शब्द अचानक अपना रंग बदलने लगे! करूणा बेदना में तब्दील हो गयी और इसी के साथ विवेक की आवाज भर्रा गयी गले के अचानक रूधने का आभास, मानव ह्रदय की एक अजीब स्थित जिसे मैं सुन्दर मन का वेग कहूं या करूणा की पराकाष्ठा...तभी फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया..........,मैं वही ठहर सा गया, संवेदनायें बदली तो होश में आकर एक मैसेज भेजा विवेक को "कि तुम बहुत तरक्की करोगे, इस लिए नही कि तुम बेहतर लिखते हो, बल्कि इस लिए कि तुम एक बेहतर इन्सान हो! और इससे ज्यादा मैं कुछ कहने की स्थित में नही था, आखिर में शायद मैं यही कहूं विवेक से जो मेरे छोटे भाई जैसे हैं, "बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है, न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाता है" --कृष्ण कुमार मिश्र )
विवेक सेंगर (लेखक : अमर उजाला में उप संपादक हैं, मौजूदा समय में शाहजहांपुर में अमर उजाला अखबार के ब्यूरो चीफ हैं। इनसे viveksainger1@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
*गैरैया की तस्वीर साभार: सतपाल सिंह, मोहम्मदी खीरी
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है,
ReplyDeleteन रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाता है..
-सार्थक आलेख.
vivek ji aap bahut mahan aadmi hain aaj ki matlavi duniya me ek aadmi dusre aadmi ke bare me nahi sochta hai per aap to pashu aur pakshiyon ke bare me sirf sochte hi nahi balki un per likhte bhi hain bhala aap se mahan aur kaun ho sakta hai.aap ne aaj gauraiya ko yaad kar hum nai peedhi ko bata diya hai ki gauraiya hamare ghar ka ek hissa hua karti thi ye baat hum ko aaj pata chali aaj tak meri maa ne bhi muze nahi bataya tha jis baat ko bo baat aap ne hum sabhi naujavano ko batai hai is ke liye aap ka koti-koti thanks ...sir aap to hamare aadarsh hai.aap ek mahan purush hain aap jaise logon ki aaj jaroorat hai is desh me....---sushil shukla,shahjahanpur up 09452095122
ReplyDelete- बहुत ही मांर्मिक वर्णन है... जो दिल के छु जाती है. मानवता और प्रकर्ति को एक साथ महसूस करना और फिर उसके लिए बार- बार तडपना दिल को बहुत ही करीब ले जाती है बहिन और गौरिया दोनों का एक साथ नाता भी जीवन भर में होने वाली घटनाएं को विभिन्न रूप से दर्शाता है और बहिन तथा गोरिया का इंतज़ार जीवन भर तक बने रहने की आस्था और भी छटपटाती है सच में आपकी वेदना और करुणा ने इस रचना को बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति दी है
ReplyDeleteकेके भैय्या के नाम विवेक की पाती
ReplyDeleteसही बताऊं केके भैय्या, करीब दस दिन पहले जब आपने हमसे गौरैया के बारे में बताया और कुछ लिखने को कहा...उस समय ही हमने आपसे वादा किया था कि हम सबसे हट कर लिखेंगे। कल उन्नीस मार्च को दोपहर में हम घर पर खाना खाने के लिए गए, खाना खाकर लेट गए, सोचा थोड़ा सा सो लिया जाए, लेकिन अचानक दिमाग में बीस मार्च तारीख कौंध गई। इसके बाद जानते हैं मैं उठा सीधे आफिस आया। यहां दो तीन लोग मिलने के लिए बैठे थे, जैसे-तैसे उन्हें टरकाया। आफिस के दरवाजे बाहर से बंद करा दिए। एक घंटे तक किसी से नहीं मिला। लिखने के लिए कोई आइडिया नहीं था। लैपटाप ऑन करने के बाद पता नहीं कैसे उंगलियां अपने आप स्टोरी लिखती चली गईं, दुबारा जब पढ़ा तो लगा कि यह बहुत मार्मिक कहानी लिख दी हमने। गौरैया को कैसे बहन से जोड़ दिया...खैर जब आपको फोन पर कहानी के बारे में बताने को हुआ तो लगा कि इसे मैं पूरा आपको सुना नहीं पाऊंगा...हुआ भी वहीं। आपसे बात होते-होते मेरे आंसू बहने लगे। हमने फोन काट दिया। इसके बाद खूब फफक-फफक कर हम रोए...इस बीच डर लगा रहा कि कोई आ न जाए...अगर कोई इस समय आ गया और वह पूछेगा कि इतने कठोर से दिखने वाले व्यक्ति की आंखों में आंसू क्यों...तो मैं जवाब नहीं दे पाऊंगा। इसी उधेड़बुन में हमने जल्दी से अपने आंसुओं को पोछा...इसके बाद खबर को हमने आपको पोस्ट किया।
चूंकि हमें लग रहा था कि जिस रचना को हमने लिखा है, वह शायद रोजमर्रा के अखबार यानी की मरे-कटे की खबरों के बीच में छपने लायक नहीं है, फिर भी हमने कहानी को अपने अमर उजाला बरेली के संपादक श्री प्रभात कुमार सिंह को मेल किया...और फोन करके बताया। उन्होंने हमें शाबासी दी...बिना स्टोरी को पढ़े हुए...इसके बाद उन्होंने कहा कि मैं मेल चेक कर रहा हूं, लेकिन तुम्हारी स्टोरी मिली नहीं। हमने उनसे कहा कि सर, हम उस स्टोरी को एफटीपी के जरिए आपके पास भेज दे रहे हैं। इसके बाद उनसे बात नहीं हुई...करीब सात बजे पता चला कि हमारी स्टोरी को पेज पांच के एंकर के रूप में लगाने के लिए उन्होंने आदेश किए हैं। बहुत अच्छा इसलिए लगा कि आज के दौर में कोई एक संपादक तो हैं जो ऐसी कहानियों को प्रकाशित करने की इच्छा रखते हैं। जानते हैं केके भैय्या...दुधवालाइव पर जिस स्टोरी को अपने जगह दी है...वह विस्तृत है, लेकिन जानबूझ कर हमने अखबार में छपी स्टोरी से बहुत सारी बातों को हटा दिया था।
सुबह हुई तो गेट पर पड़े अखबारों को उठाकर पत्नी ले आईं। हमें बता दिया कि अखबार आ गए हैं। हम उठे और सबसे पहले हिंदुस्तान को देखा...नवीन जोशी जी का लेख था...पूरा पढ़ा...अच्छा लगा कि एक और संपादक मिले जो ऐसे लेखों को लिखने और प्रकाशित कराने मे काफी समय से लगे हैं। इसके बाद मैंने अपनी खबर देखी...पढ़ी नहीं। पत्नी आईं और चाय के कप के साथ अमर उजाला का पेज नंबर पांच खोला। बोलीं...अच्छा आज गौरैया पर लिखा है...हम थे कि उनके चेहरे को देखते जा रहे थे। जैसे-जैसे वह स्टोरी को पढ़ रही थीं, वैसे-वैसे उनके चेहरे पर गंभीरता छाती जा रही थी। अंत में ऐसा लगा कि उनकी आंखों में आंसू छलछला रहे हैं, चाय का कप लेकर किसी काम का बहाना कर वह बेडरूम से बाहर चली गईं। इसके बाद मेरे सहयोगी बृजेश द्विवेदी जो दो दिन के लिए अपने घर हरदोई गए थे...वह घर आए...मैं नहाने के बाद कपड़े पहन रहा था। पत्नी ने बताया कि शायद बृजेश की आवाज लग रही है...हमने कहा कि बृजेश कैसे हो सकते हैं...वह तो हरदोई अपने घर पर हैं। बाहर निकल देखा तो बृजेश ही थे...उनको ड्राइंग रूम में बैठा कर मैं तैयार होने लगा...पत्नी चाय बनाने लगीं। दुबारा जब हम बृजेश के पास गए तो उन्होंने कहा कि भैय्या हम तो रात में ही लौट आए थे...घर पर काम नहीं था...मन भी नहीं लग रहा था...इसलिए। इसके बाद बृजेश ने गौरैया वाली खबर की चर्चा की तो उनकी आंखों में भी आंसू तैरने लगे। हमने अपने आंसुओं के बहने पर उस समय पाबंदी लगाई और बृजेश से दूसरी बातें करनी शुरू कर दी। इसी दौरान मदरसा बोर्ड के प्रांतीय चेयरमैन रह चुके इकबाल खां उर्फ फूल मियां का फोन आया...बोले कि कल हम आफिस आए थे..आपकी आंखों की पोरे लाल थीं, आज पता चला ऐसा क्यों था...क्यों कि आज अमर उजाला पढऩे के बाद मेरी आंखों से भी आंसू बहे हैं।
ReplyDeleteइसके बाद दस बजे आफिस पहुंचा और यहां बिल्कुल खामोश बैठा था। धीरे-धीरे करके हमारे सारे सहयोगी आने लगे...डर लग रहा था कि कोई इस स्टोरी की चर्चा न कर दे...लेकिन अनूप वाजपेयी जी ने आते ही कहा कि भैय्या पुवायां से मम्मी का फोन आया था, बोलीं है कि भैय्या की स्टोरी दिल के बेहद करीब है। उनको मेरा आशीर्वाद है। आंखों में आंसू आए, लेकिन फिर रोक लिया। इसके बाद सुनील अग्निहोत्री, ऋषि श्रीवास्तव ने उस स्टोरी की सराहना की। जानते हैं...इस कहानी के बारे में अनूप जी की मदर ने कहा कि विवेक भैय्या की शायद कोई बहन रही होगी...मेरा जवाब था...कहानी है और केवल कहानी है अनूप जी और कुछ नहीं। फिर शाहजहांपुर के हिंदुस्तान के कापी एडिटर राजीव चंदेल ने एक एसएमएस भेजा...लिखा था सर, आपकी गौरैया वाली स्टोरी पढ़ कर मेरा दिल भर आया...लिखा कि कई बार स्टोरी को पढ़ चुका हूं...फिर से पढऩे को मन कर रहा है...राजीव को इस स्टोरी को पढऩे के बाद अपना बचपन भी याद आया कि कैसे वह गौरैया को पकड़कर उसे रंगते थे...यहां के व्यापारी सुरक्षा फोरम के अध्यक्ष पंकज वर्मा सर्राफ ने भी फोन कर गौरैया की स्टोरी को अपने दिल के करीब होने की बात बताई और कहा कि छत धंसी और गौरैया को चोट लगी...यह बहुत मार्मिक था....मेरी भी एक छोटी सी बेटी है...इसलिए मैं इस मर्म को बेहतर तरीके से समझ सकता हूं। टीवी पत्रकार सुशील शुक्ला ने नेट पर अमर उजाला ईपेपर पढ़ते वक्त हमें फोन किया और स्टोरी के बारे में बताया। इसके बाद हमने उन्हें दुधवा जंगल्स डाट काम के खोलने को कहा, उस पर मेरी पूरी स्टोरी पढ़ी।
सही बताएं केके भैय्या, अब मेरा मन गौरैया को लेकर अपनी ही लिखी स्टोरी को पढऩे या उसके बारे में चर्चा सुनने का मन नहीं करता है...इसलिए कि मेरी आंखों में जलन लगातार बढ़ती जा रही है...स्टोरी लिखने के बाद से बहुत बार तो मैं रो चुका हूं...और मेरी आंखों में लगातार आंसू उतरा रहे हैं।
आपका विवेक सेंगर
ek adbhut....aur naa bhula jaane yogya hai ye blog....iske liye aapko bahut-bahut-bahut aabhaar....!!
ReplyDeleteविवेक जी ,ब्लॉगपर आपके लेख को पढ़ा ॰ तो एकबारगी लगा की ये लेखक के शब्दों के तीर है,या एक कवि की कल्पना ;लेकिन जैसे जैसे ब्लॉग की लाइन बढ़ती गई,मेरे आखों की कोर गीली होती गई,पढ़कर ये तो नहीं कहूँगा अच्छा लगा लेकिन ये जरूर कहूँगा ,विवेक अपने नाम के जैसा ही है,मेरी अपने रब से इत्ती दुआ सी दुआ है की मेरे यार की चिरय्या को फिर से वही आँगन मिले वही आसमान मिले ,मै ये तो नहीं जनता हूँ की इस लेख को पढ़ कितनों की आँखे भर आयीं होंगी, लेकिन इतना है की कोई और भी बहुत रोया होगा,
ReplyDeletesalimreporter.lmp@gmail.com
ईश्वर जरूर सुनेंगे आप की बात विवेक, गौरैया और गौरैया!दोनों आप के आँगन में आयेंगी। यही मेरी शुभकामना है! पर इन दोनों को मैं ज़ुदा नही करूगा, कयोंकि मैं इतना जानता हूं तुम दोनों से स्नेह रखते हो।
ReplyDeleteशुभकामनायें
.विवेक भाई ने बहुत साल पहले भीरा के इलाके में हुए अग्निकांड को कवर किया था .उसकी हेडिंग लगी थी -न चिड़िया चहकी और न मुर्गे ने दी बांग.!उस दिन विवेक भाई क़ि खबर मेरी समझ में नहीं आयी थी .लेकिन आज विवेक भी ने जो लिखा वो मेरे जेहन में घर कर गया था .विवेक भाई ने हम सब को रुला दिया .हम सब उनसे परिचित है .वह भी रुलाते तो खूब है //आज शायद वो भी रोये थे .!अगर वो कोई कहानी लिखते तो शायद दुसरे रो पड़ते लेकिन ये कहानी तो थी नहीं ..वो सच था जिसे कहने के लिए विवेक होना जरुरी है और हार कोई विवेक हो नहीं सकता ! इसलिए दुनिया के खोखले नियमों और सड़े हुए सिस्टम क़ि बदबू को अपने जेहन में भरे बगैर विवेक ने गौरया क़ि वापसी क़ि ईमानदारी से दुआ की
ReplyDeleteAapki Goraiya ud kar mere blog par ja baithi hai.
ReplyDeleteAansuon ke sath...
Snehshikha
Oshiya a new womam
snowaborno.blogspot.com
Dear Bhaiya ....
ReplyDeleteHats off to you.... jadu hai apki kalam mein..
Babu...
Baat Jo Dil Se Niklati Hai, Asar Rakhti Hai..
ReplyDeletePar Nahin Takate Parwaaz Magar Rakhti Hain.
tumhari bhawnao,jazbaton ki kadr karta hun aur allah se dua karta hun ki tumhari is dil ki aawaz ko sune aur tumhe, tumhari ajeez GAURAIYA se milaye..
Vivek ji
ReplyDeletemy congratulations for such senstive thoughts, yes indeed its an reading with do takes one on a journey down the memory lane and that too with nostalgia. I not only enjoyed reading the story but equally enjoyed the blog comments. I kind of related witht the subject as i had been working for the conservation of House Sparrow since 2008 and feels your story shoud be made into a poster for generating awareness, so that more and more people can step forward to help this amazing species in great distress. Please aloow us to make a poster (off course with your name credit) so that we can be more effective in our appeal to save house sparrows. Mishra ji is aware of our bird conservation initioatives.
Regards
Prateek Panwar
Cell # 9412054216
To,
ReplyDeleteMr. Prateek Panwar
Permission granted
Krishna
editor
dudhwalive