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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Mar 4, 2010

बाघों के अस्तित्व पर सांख्यिकी का अज़ब खेल!

 देवेन्द्र प्रकाश मिश्र* & राजकुमार वर्मा* दुधवा के बाघों पर खतरा मंडराया,
पलियाकलां-खीरी। बाघों की गणना के अज़ब-गज़ब तरीके खोजे जा रहें है, और उन तकनीकों पर पैसा भी बहाया जा रहा है, पर क्या जंगल के हर हिस्से को, और प्रत्येक बाघ को ये कैमरे में कैद कर पाते हैं? बाघ कही गणित के फ़ेर में तो नही फ़स गया, जहाँ सिर्फ़ कम्प्यूटर पर बेहतरीन साफ़्टवेयर से बनाये जाने वाले चार्ट, मैप और सांख्यिकी विज्ञान की खूबसूरत विधाओं का प्रयोग मात्र तो नही, क्योंकि इस तरह की नयी-पुरानी तकनीकी कवायदे जारी है, बाघ सरंक्षण की शुरूवात से पर महज़ गणनायें बचती हैं, बाघ नही! आखिर ऐसा क्यों? सरिस्का एक उदाहरण मात्र है, कमोंवेश ऐसे हालात हर जगह बन-बिगड़ रहे है, और टाइगर अपनी प्रकृति प्रदत्त वृत्ति से ही बचता आया है, जहाँ इन तमाम योजनाओं का कोई कोई खास योगदान नही! यदि ऐसा होता तो प्रोजेक्ट टाइगर के बाद बाघों की सख्या में बढ़ोत्तरी होने के बज़ाय विनाश की स्थिति में न होती।  दुधवा टाइगर रिजर्व के  अधिकारियों ने विगत दिनों अखबारों में यह बयानबाजी करके कि दुधवा और कतर्नियाघाट में बाघों का कुनुबा बढ़ा है, अपनी पीठ स्वयं थपथपाई है। उन्होनें तो यहां तक दावा कर दिया है कि दुधवा और कतर्नियाघाट के जंगल में 38 बाघ शावक देखे गये है। वैसे अगर देखा जाए तो यह अच्छी और उत्साहजनक खबर है। परंतु इसके दूसरे पहलू में उनकी इस बयानबाजी से बाघों के जीवन पर खतरे की तलवार भी लटक गई है।
    भारत में बाघों की दुनिया सिमट कर 1411 पर टिक गई है। इसका प्रमुख कारण रहा विश्व बाजार में बाघ के अंगों की बढ़ती मांग। इसको पूरा करने के लिये सक्रिय हुये तस्करों ने बाघ के अवैध शिकार को बढ़ावा दिया। जिससे राजस्थान का सारिस्का नेशनल पार्क बाघ विहीन हो गया, तथा देश के अन्य राष्ट्रीय उद्यानों के बाघों पर तस्करों एवं शिकारियों की गिद्ध दृष्टि जमी हुई है। इससे बाघों का जीवन सकंट में है। ऐसे में दुधवा टाइगर रिजर्व के जिम्मेदार दोनों अधिकारियों का उक्त बयान शिकारियों के लिये बरदान बन कर यहां के बाघ शावकों का जीवन संकट में डाल सकता है।
इस स्थिति में साधन एवं संसाधनों की किल्लत से जूझ रहा लखीमपुर-खीरी का वन विभाग क्या शिकारियों का सामना कर पाएगा? यह स्वयं में विचरणीय प्रश्न है। कतर्नियाघाट वन्य जीव प्रभाग क्षेत्र में अभी पिछलें माह ही लगभग आधा दर्जन गुलदारों (तेदुआं) की अस्वाभाविक मौते हो चुकी है। यह घटनाएं स्वयं में दर्शाती है कि कतर्नियाघाट क्षेत्र में गुलदारों की संख्या अधिक है, और बाघों की कम। इस परिपेक्ष्य में वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि गुलदारों की बढ़ोत्तरी और मानव आबादी में उनकी घुसपैठ दर्शाती है, कि जंगलों में इनके भोजन में कमी आयी है, और वन्य-जीव विहार के बफ़र क्षेत्र में मानव आबादी द्वारा बढ़ा अतिक्रमण  मानव और जंगल के जीवों के मध्य टकराव का प्रमुख कारण हैं, उनका कहना है कि  बाघ और गुलदार के बीच का संघर्ष जो कि जीवित रहने के लिए संसाधनों पर अधिकार की जंग है,  उन्हे एक दूसरे से अलग रखती है, जिस इलाकें में बाघ होगा उसमें गुलदार नही रह सकता है। यही कारण है कि बाघ घने जंगल में रहता है और गुलदार जंगल के किनारे और बस्तियों के आसपास रहना पंसद करता है।
दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर का इतिहास देखा जाए तो उसकी असफलता इस बात से ही जग जाहिर हो जाती है कि पिछले एक दशक में यहां बाघों की संख्या 100-106 और 110 के आसपास ही घूम रही है। दुधवा में बाघों की मानीटरिंग की कोई पुख्ता व्यवस्था नही है, तथा यहां बाघों की संख्या पर भी प्रश्नचिन्हृ लगते रहे है। ऐसी दशा में उपरोक्त अधिकारियों की बयानजाबी पर संदेह होना लाजमी है।
देवेन्द्र प्रकाश मिश्र* ( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ब्लैक टाइगर अखबार के संपादक और वन्य-जीवन के लेखन की विधा के मर्मज्ञ, खीरी जनपद के पलिया कस्बे में रहते हैं, इनसे dpmishra7@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)
राजकुमार वर्मा* (जनसेवा केन्द्र न्यूज एजेन्सी, पलिया कलां-खीरी।)

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