कृष्ण कुमार मिश्र*
ये भी करते हैं अपने दुख-सुख की अभिव्यक्ति: जरा नज़रिया बदल कर तो देखिये।
लखीमपुर-खीरी, (उत्तर प्रदेश) के एक गाँव कोठिया में गिद्धों के जोड़े की पूजा-अर्चना की जाती हैं। इसी जगह आज से ठीक ४७ वर्ष पहले एक मादा गिद्ध ने अपने नर साथी की मृत्यु से दुखी होकर अपने प्राण त्याग दिये। आज विलुप्त हो रही इस प्रजाति के जिम्मेदार तमाम वें लोग जो जहर की पैदावार करते है और वो लोग जो इसे इस्तेमाल करने की योजनायें मंजूर करते हैं। शायद ये घटनायें उन्हे कुछ सोचने पर मजबूर करें। और हमारी वसुंधरा से लुप्त होती प्रजातियां अपने अस्तित्व को कायम रख सकें!
यह केवल एक कहानी या किवदन्ती मात्र नही है ये प्रमाण है, उस संवेदनशीलता के चरम का, जिसका मानव हमेशा दम भरता है। कुछ शब्द है, जो उन भावनाओं को अभिव्यक्त करते है, जिन्हे मनुष्य सिर्फ़ अपनी ही जाति में मौजूद होने से फ़क्र महसूस करता है, किन्तु यकीनन ऐसा नही है। दुनिया में बहुत पहले ही प्रकृति के जानकारों ने इस बात को सिद्ध कर दिया था कि करूणा, प्रेम, राग, द्वेष, सुख व दुख जन्तु ही नही पेड़-पौधे भी महसूस करते हैं।
लेकिन इस बात को ज्यादातर लोग मानने और महसूस करने के लिए तैयार नही। और यही वजह है कि लोग अपने आस-पास के सहजीवियों से संपर्क स्थापित नही कर पाते! पर ऐसे भी लोग हैं जो इन जीवों से मुखातिब होते है और इनकी भाषा भी समझते है, यहाँ पर सिर्फ़ नज़रिये का ही फ़र्क है।
भारत में मानव जाति के भावानात्मक चरमोत्षर्क की एक स्थित है, पति की मृत्यु हो जाने पर शोक में पत्नी द्वारा अपने प्राणों का परित्याग कर देना। जिसे बाद में लोगों ने परंपरा बना डाला! कि न चाहते हुए भी पति की मृत्यु पर पत्नी को संजा कर चिता पर बिठा देना और जलते हुए जीवित शरीर से निकलती चीखों को ढ़ोल-नगाड़ों और सती के जयकारों की गूँज में तब्दील कर देना।
पक्षियों में यह शोक की अभिव्यक्ति का एक उदाहरण नही है जब किसी पक्षी या अन्य जीव ने अपने प्राण त्याग दिये हो, भारत में ऐसे तमाम वाकयें हुए जिनका बाकायदा प्रमाण मौजूद है।
अब आप को लिए चलते हैं खीरी जनपद के उस कोठिया गाँव में जहाँ एक खूबसूरत पक्षी मन्दिर है जिसमें संगमरमर की दो विशाल मूर्तियां स्थापित की गयी हैं। एक पुजारी प्रतिदिन उनका पूजन करता है। आस-पास के ग्रामीण यहां मन्नते माँगने आते है। यहाँ का सबसे मशहूर आयोजन है फ़रवरी के महीने में मेले का आयोजन, जिसमे दूर-दूर से लोग आते हैं, इस अदभुत मन्दिर को देखने। यह मेला वैलेन्टाइन डे के आस-पास ही शुरू होता है। प्रेम की सच्ची व महान अभिव्यक्ति का अतीत जो अब मूर्तियों के रूप में मौजूद है।
वहाँ के पुजारी के मुताबिक जो स्वंम गवाह भी हैं इस घटना के ने बताया कि ४६-४७ वर्ष पूर्व यहां एक मवेशी के मृत शरीर पर गिद्धों का एक झुण्ड था, शाम हुई सभी गिद्ध अपने-अपने गंतव्य की तरफ़ चले गये किन्तु एक जोड़ा वही मौजूद रहा। जोड़े में एक गिद्ध बीमार सा प्रतीत हुआ, और उसी जगह बैठा रहा। कुछ दिनों में उसकी मृत्यु हो गयी। लेकिन मादा गिद्ध वही उस मृत गिद्ध के पास बैठी रही। एक-दो दिनों बाद यह कौतूहल का विषय बन गया, भीड़ जमा होने लगी। आखिरकार पुलिस भी लगा दी गयी। हज़ारों की भीड़ ने देखा कि जब भी कोई उस जीवित गिद्ध को या उसके मॄत साथी को छू लेता तो वह निकट के तालाब से पानी लाकर मृत गिद्ध पर छिड़कती।( स्टार्क पक्षी में मैने कुछ मिलता-जुलता व्यवहार देखा है प्रजनन काल के समय अपने अण्डों व बच्चों पर वह पानी लाकर छिड़कती हैं ताकि तापमान नियत रहे)
अब यह पक्षी सूखी टहनियां ला-लाकर इकठ्ठा करने लगी, ग्रामीणों की करूणा व श्रद्धा अपने चरम पर थी इस पक्षी का अपने साथी के प्रति समर्पण देखकर। ग्रामीणों ने चन्दन, घी आदि की व्यवस्था कर उन लकड़ियों पर डाला और कहते हैं कि आग स्वंम प्रज्ज्वलित हो गयी और वह मादा गिद्ध अपने साथी के साथ सती हो गयी, बिना आग की लपटों द्वारा विचलित हुए। ( हो सकता है कि अग्नि स्वंम प्रज्वलित होने वाली बात अतिशयोक्ति हो, किन्तु पक्षी ने अपने प्राण अवश्य त्याग दिए अपने साथी के शोक में)
स्वतंत्रता सेनानी, पूर्व विधायक व अवधी के महान लेखक पण्डित शुक्ल ने ऐसी ही एक घटना का जिक्र अपनी कविता "सती गीधिन" में किया है। यह घटना सन १९७१ में लखीमपुर शहर के समीप कोन नाम के गाँव में घटी, जहाँ एक गिद्ध ने अपने मृत साथी के साथ तकरीबन नौ रोज गुजारे और फ़िर उसकी वही मृत्यु हो गयी। लोगों ने बड़ी श्रद्धा से इनका दाह संस्कार किया। इसे पण्डित जी ने सन १९७२ में लिखा।
पं० बंशीधर की इस कविता को पढ़ने के लिये यहाँ पर क्लिक करें।
इन पक्षियों के इन भावनात्मक व्यवहार का जिक्र इस लिए और जरूरी हो जाता है कि आज सरकार की योजनायें व हमारे लोगों को अनियोजित विकास में ठूसना, इन तमाम प्रजातियों के अस्तित्व को नष्ट करने का कारण बना हुआ है। भारतीय संस्कृति में जीवों के प्रति दया, प्रेम का भाव देने वाली शिक्षा आज भी विद्यमान है लेकिन व्यवस्था ने उसे दूषित किया है। गाँवों का बदलता परिवेश, शिक्षा-नीतियां, मिटते चरागाह, नदियां, तालाब, हरित क्रान्ति के नाम पर धरती में बोया गया जहर, ये कई मसले हैं जो जिम्मेदार है, प्रकृति संरचनाओं के खात्में में। क्या हम विकास के नाम पर कोई कार्यक्रम चलाने से पहले उसके दूरगामी परिणाम नही सोचते?
कृष्ण कुमार मिश्र (लेखक वन्य-जीव सरंक्षण व प्रकृति के अध्ययन में प्रयासरत हैं, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी जनपद में रहते हैं। इनसे आप dudhwajungles@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
फ़ोटो साभार: आदित्य रॉय* (वरिष्ठ पक्षी वैज्ञानिक हैं, इन दिनों आप अहमदाबाद में रहते हैं आप से adi007roy@gmail पर संपर्क कर सकते हैं)
good articlce...keep it up.
ReplyDeleteअदभुत और उम्दा जानकारी
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख और उम्दा जानकारी
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