Openbilled Storks: Photo by: Krishna Kumar Mishra |
पक्षियों के संरक्षण का जीवन्त उदाहरण: ग्राम सरेली
कृष्ण कुमार मिश्र, लखीमपुर खीरी* उन्नीसवी सदी की शुरूवात में ब्रिटिश हुकूमत के एक अफ़सर को लहूलुहान कर देने से यह गाँव चर्चा में आया मसला था। एक खूबसूरत पक्षी प्रजाति को बचाने का, जो सदियों से इस गाँव में रहता आया। बताते हैं कि ग्रामीण ये लड़ाई भी जीते थे, कौर्ट मौके पर आयी और ग्रामीणों के पक्षियों पर हक जताने का सबूत मांगा, तो इन परिन्दों ने भी अपने ताल्लुक साबित करने में देर नही की, इस गाँव के बुजर्गों की जुबानी कि उनके पुरखों की एक ही आवाज पर सैकड़ों चिड़ियां उड़ कर उनके बुजर्गों के आस-पास आ गयी, मुकदमा खारिज़ कर दिया गया।गाँव वालों के घरों के आस-पास लगे वृक्षों पर ये पक्षी रहते है और ये ग्रामीण उन्हे अपने परिवार का हिस्सा मानते है, यदि कोई इन्हे हानि पहुंचानें की कोशिश करता है तो उसका भी हाल उस बरतानियां सरकार के नुमाइन्दे की तरह हो जाता है...अदभुत और बेमिसाल संरक्षण। खासबात ये है कि हज़ारों की तादाद में ये पक्षी यहां रहते आये है और इन्हे किसी भी तरह का सरकारी सरंक्षण नही प्राप्त है और न ही कथित सरंक्षण वादियों की इन पर नज़र पड़ी है, शायद यही कारण है कि यह पक्षी बचे हुए हैं! अफ़सोस सिर्फ़ ये है ग्रामीणों के इस बेहतरीन कार्य के लिए सरकारों ने उन्हे अभी तक कोई प्रोत्साहन नही दिया, जिसके वो हकदार हैं। जिला लखीमपुर का एक गांव सरेली, जहां पक्षियों की एक प्रजाति सैंकड़ों वर्षों से अपना निवास बनाये हुये है। और यहां के ग्रामीण इस पक्षी को पीढ़ियों से संरक्षण प्रदान करते आ रहे हैं। यह गांव मोहम्मदी तहसील के मितौली ब्लाक के अन्तर्गत आता है। पक्षियों की यह प्रजाति जिसे ओपनबिलस्टार्क कहते हैं। यह पक्षी सिकोनिडी परिवार का सदस्य है। इसकी दुनियां में कुल 20 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 8 प्रजातियां भारत में मौजूद हैं। ओपनबिलस्टार्क सामान्यतः भारतीय उपमहाद्वीप, थाईलैण्ड व वियतनाम, में निवास करते है तथा भारत में जम्मू कश्मीर व अन्य बर्फीले स्थानों को छोड़कर देश के लगभग सभी मैदानी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। चिड़ियों की यह प्रजाति लगभग 200 वर्षों से लगातार हजारों की संख्याओं में प्रत्येक वर्ष यहां अपने प्रजनन काल में जून के प्रथम सप्ताह में आती है। यह अपने घोसले मुख्यतः इमली, बरगद, पीपल, बबूल, बांस व यूकेलिप्टस के पेड़ों पर बनाते हैं। स्टार्क पक्षी इस गांव में लगभग 400 के आसपास अपने घोसले बनाते हैं। एक पेड़ पर 40 से 50 घोसले तक पाये जाते हैं। प्रत्येक घोसले में 4 से 5 अण्डे होते हैं। सितम्बर के अन्त तक इनके चूजे बड़े होकर उड़ने में समर्थ हो जाते हैं और अक्टूबर में यह पक्षी यहां से चले जाते हैं। यह सिलसिला ऐसे ही वर्षों से चला आ रहा है। चूंकि यह पक्षी मानसून के साथ-साथ यहां आते हैं इसलिए ग्रामीण इसे बरसात का सूचक मानते हैं। गांव वाले इसको पहाड़ी चिड़िया के नाम से पुकारते हैं, जबकि यह चिड़िया पहाड़ों पर कभी नहीं जाती। इनके पंख सफेद व काले रंग के और पैर लाल रंग के होते हैं। इनका आकार बगुले से बड़ा और सारस से छोटा होता है। इनकी चोंच के मध्य खाली स्थान होने के कारण इन्हें ओपनबिल कहा गया। चोंच का यह आकार घोंघे को उसके कठोर आवरण से बाहर निकालने में मदद करता है। यह पक्षी पूर्णतया मांसाहारी है। जिससे गांव वालों की फसलों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। गांव वालों के अनुसार आज से 100 वर्ष पूर्व यहां के जमींदार श्री बल्देव प्रसाद ने इन पक्षियों को पूर्णतया संरक्षण प्रदान किया था और यह पक्षी उनकी पालतू चिड़िया के रूप में जाने जाते थे। तभी से उनके परिवार द्वारा इन्हें आज भी संरक्षण दिया जा रहा है। यह पक्षी इतना सीधा व सरल स्वभाव का है कि आकार में इतना बड़ा होने कें बावजूद यह अपने अण्डों व बच्चों का बचाव सिकरा व कौओं से भी नहीं कर पाता। यही कारण है कि यह पक्षी यहां अपने घोसले गांव में ही पाये जाने वाले पेड़ों पर बनाते हैं। जहां ग्रामीण इनके घोसले की सुरक्षा सिकरा व अन्य शिकारी चिड़ियों से करते हैं।
यहा गाँव दो स्थानीय नदियों पिरई और सराय के मध्य स्थिति है गाँव के पश्चिम नहर और पूरब सिंचाई नाला होने के कारण गाँव के तालाबों में हमेशा जल भराव रहता है। जिससे इन पक्षियों का भोजन घोंघा, मछली आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है। ओपनबिलस्टार्क का मुख्य भोजन घोंघा, मछली, केंचुऐ व अन्य छोटे जलीय जन्तु हैं। इसी कारण इन पक्षियों के प्रवास से यहां के ग्रामीणों को प्लेटीहेल्मिन्थस संघ के परजीवियों से होने वाली बीमारियों पर नियन्त्रण रखता है क्योंकि सिस्टोसोमियासिस, आपिस्थोराचियासिस, सियोलोप्सियासिस व फैसियोलियासिस (लीवरफ्लूक) जैसी होने वाली बीमारियां जो मनुष्य व उनके पालतू जानवरों में बुखार, यकृत की बीमारी पित्ताशय की पथरी, स्नोफीलियां, डायरिया, डिसेन्ट्री आदि पेट से सम्बन्धित बीमारी हो जाती हैं। चूंकि इन परजीवियों का वाहक घोंघा (मोलस्क) होता है जिसके द्वारा खेतों में काम करने वाले मनुष्यों और जलाशयों व चरागाहों में चरने व पानी पीने वाले वाले पशुओं को यह परजीवी संक्रमित कर देता है।
इन पक्षियों की बहुतायत से यहां घोंघे लगभग पूर्णतया इनके द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं, जिससे यह परजीवी अपना जीवनचक्र पूरा नहीं कर पाते और इनसे फैलने वाला संक्रमण रूक जाता है। इन रोगों की यह एक प्रकृति प्रदत्त रोकथाम है। इतना ही नहीं इन पक्षियों के मल में फास्फोरस, नाइट्रोजन, यूरिक एसिड आदि कार्बनिक तत्व होने के कारण जिन पेड़ों पर यह आवास बनाते हैं उसके नीचे इनका मलमूत्र इकट्ठा होकर बरसात के दिनों में पानी के साथ बहकर आस पड़ोस के खेतों की उर्वरकता को कई गुना बढ़ा देता है। इतनी संख्या में ओपनबिल स्टार्क पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं अन्यन्त्र देखने को नहीं मिलती। अतः स्थानीय लोगों को इन पक्षियों का शुक्रगुजार होना चाहिए और सहयोग देकर पक्षियों के इस स्वर्ग को नष्ट होने से बचाना चाहिए ताकि पक्षियों का यह अनूठा निवास और भारत की जैव विविधता हमेशा फलती फूलती रहे। वैसे तो आज भी प्रत्यक्ष रूप से यहाॅ इन पक्षियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता पर लगातार पेडों की कटाई और अवैध रूप से खेती के लिए तालाबों की कटाई जारी है जिससे इन पक्षियों के आवास और भोजन प्राप्ति के स्थानों पर खतरा मडरा रहा है जो भविष्य में इनकी संख्या को कम कर देगा। आज के इस आपाधापी के दौर में जब मनुष्य सिर्फ भौतिकता की दौड़ में शामिल है, तब भी कुछ लोग ऐसे हैंजो प्रकृति की इन खूबसूरत रचनाओं को बचाने में लगे हुये हैं। यह प्रशंसनीय है। मनुष्य लगातार विकास के नाम पर प्रकृति से दूर होता जा रहा है। प्रकृति में सारी क्रियाएं सुसंगठित व सुनिश्चित होती हैं। जब तक कि इसमें कोई छेड़छाड़न की जाय। परन्तु मानव जाति की भौतिकतावादी सोंच ने प्रकृति का दोहन करके इसे पूरी तरह से असन्तुलित कर दिया है औरयही कारण है कि हम आज प्रकृति के संरक्षण की बात कर रहे हैं ताकि वह सन्तुलन बरकरार रहे। नहीं तो अब तक पर्यावरण संरक्षण, जीव-जन्तु संरक्षण, जल संरक्षण और पर्यावरण प्रदूषण जैसे शब्द सिर्फ किताबी हुआ करते थे। यह एक हास्यास्पद बात ही है कि अब सारा विश्व पर्यावरण संरक्षण के कार्यों में बड़े जोर-शोर से लगा हुआ है। पहले तो हम किसी वस्तु को नष्ट करते हैं और जब उसके दुष्प्रभाव अपना असर दिखाने लगते हैं तब हम संरक्षण की बात करते हैं। आज पर्यावरण प्रबन्धन में बड़ी बड़ी संस्थायें व सरकारें लगी हुई हैं। एक सोचनीय प्रश्न है कि मनुष्य सिर्फ किसी निश्चित स्थान का प्रबन्धन करने में सक्षम है पर क्या उसने कभी सोचा है कि वह पूरी पृथ्वी के पारिस्थितिकी तन्त्र का प्रबन्धन कर सकता है। आज के इस वाद काल के दौर में जातिवाद, धर्मवाद, भौतिकवाद, साम्यवाद अन्य के स्थान पर अगर हम प्रकृतिवाद को महत्व दें तो हमारी सारी समस्यायें खुद-ब-खुद दूर हो जायेंगी, यह शाश्वत सत्य है। अगर हम इसे एक दार्शनिक के दृष्टिकोण से देंखें तो यह सारा संसार सारी चीजों से मिलकर बना है और वह सारी चीजें आपस में एक दूसरे को प्रभावित करती हैं, चाहें वह प्रत्यक्ष रूप में करें अथवा अप्रत्यक्ष। एक मनुष्य के पूरे शरीर की तरह यदि शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये तो उससे सारा शरीर बिना प्रभावित हुये नहीं रह सकता। इसी प्रकार इस प्रकृति के सारे तत्व एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और यदि कोई एक तत्व प्रभावित होता है तो इससे पूरा पारिस्थितिकी तन्त्र प्रभावित होता है। अतः आकाश की सुन्दरता को पक्षीविहीन होने से जिस प्रकार यह ग्रामीण सतत् प्रयासरत् हैं, यह अपने आप एक सराहनीय प्रयास है और इससे हमें सबक लेना चाहिये।
ये पक्षी अपने घोंसले इस गांव के अलावा खीरी जनपद में ऐठापुर फार्म के मालिक आलोक शुक्ल के निजी जंगल में काफी तादाद में बनाते हैं। एक खास बात यह कि दुधवा नेशनल पार्क के बाकें ताल के निकट के वृक्षों पर इन पक्षियों की प्रजनन कालोनी विख्यात थी किन्तु सन 2001 से पक्षियो का सह बसेरा उजड़ गया। यानी संरक्षित क्षेत्रो के बजाय ग्रामीण क्षेत्रो में इन चिड़ियों का जीवन चक्र अघिक सफल है। कुल मिलाकर जब आज मानव जनित कारणों से पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर है ऐसे में खीरी जनपद में पक्षियों के यह सुरम्य वास स्थल जीवों के सरक्षण की एक नई राह दिखाते है
प्रदेश में इन पक्षियों के घोसलों के बारे में यदि कोई जानकारी हो तो मुझे सूचित करे ताकि इनके व्यवहार के अघ्ययन व इनके संरक्षण के समुचित प्रयास किये जा सके। (यह लेख हिन्दी व अंग्रेजी की कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है।)
कृष्ण कुमार मिश्र
(लेखक: वन्य-जीवों के अध्ययन व सरंक्षण के लिए प्रयासरत है, जनपद खीरी में रहते हैं।)इन पक्षियों की बहुतायत से यहां घोंघे लगभग पूर्णतया इनके द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं, जिससे यह परजीवी अपना जीवनचक्र पूरा नहीं कर पाते और इनसे फैलने वाला संक्रमण रूक जाता है। इन रोगों की यह एक प्रकृति प्रदत्त रोकथाम है। इतना ही नहीं इन पक्षियों के मल में फास्फोरस, नाइट्रोजन, यूरिक एसिड आदि कार्बनिक तत्व होने के कारण जिन पेड़ों पर यह आवास बनाते हैं उसके नीचे इनका मलमूत्र इकट्ठा होकर बरसात के दिनों में पानी के साथ बहकर आस पड़ोस के खेतों की उर्वरकता को कई गुना बढ़ा देता है। इतनी संख्या में ओपनबिल स्टार्क पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं अन्यन्त्र देखने को नहीं मिलती। अतः स्थानीय लोगों को इन पक्षियों का शुक्रगुजार होना चाहिए और सहयोग देकर पक्षियों के इस स्वर्ग को नष्ट होने से बचाना चाहिए ताकि पक्षियों का यह अनूठा निवास और भारत की जैव विविधता हमेशा फलती फूलती रहे। वैसे तो आज भी प्रत्यक्ष रूप से यहाॅ इन पक्षियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता पर लगातार पेडों की कटाई और अवैध रूप से खेती के लिए तालाबों की कटाई जारी है जिससे इन पक्षियों के आवास और भोजन प्राप्ति के स्थानों पर खतरा मडरा रहा है जो भविष्य में इनकी संख्या को कम कर देगा। आज के इस आपाधापी के दौर में जब मनुष्य सिर्फ भौतिकता की दौड़ में शामिल है, तब भी कुछ लोग ऐसे हैंजो प्रकृति की इन खूबसूरत रचनाओं को बचाने में लगे हुये हैं। यह प्रशंसनीय है। मनुष्य लगातार विकास के नाम पर प्रकृति से दूर होता जा रहा है। प्रकृति में सारी क्रियाएं सुसंगठित व सुनिश्चित होती हैं। जब तक कि इसमें कोई छेड़छाड़न की जाय। परन्तु मानव जाति की भौतिकतावादी सोंच ने प्रकृति का दोहन करके इसे पूरी तरह से असन्तुलित कर दिया है औरयही कारण है कि हम आज प्रकृति के संरक्षण की बात कर रहे हैं ताकि वह सन्तुलन बरकरार रहे। नहीं तो अब तक पर्यावरण संरक्षण, जीव-जन्तु संरक्षण, जल संरक्षण और पर्यावरण प्रदूषण जैसे शब्द सिर्फ किताबी हुआ करते थे। यह एक हास्यास्पद बात ही है कि अब सारा विश्व पर्यावरण संरक्षण के कार्यों में बड़े जोर-शोर से लगा हुआ है। पहले तो हम किसी वस्तु को नष्ट करते हैं और जब उसके दुष्प्रभाव अपना असर दिखाने लगते हैं तब हम संरक्षण की बात करते हैं। आज पर्यावरण प्रबन्धन में बड़ी बड़ी संस्थायें व सरकारें लगी हुई हैं। एक सोचनीय प्रश्न है कि मनुष्य सिर्फ किसी निश्चित स्थान का प्रबन्धन करने में सक्षम है पर क्या उसने कभी सोचा है कि वह पूरी पृथ्वी के पारिस्थितिकी तन्त्र का प्रबन्धन कर सकता है। आज के इस वाद काल के दौर में जातिवाद, धर्मवाद, भौतिकवाद, साम्यवाद अन्य के स्थान पर अगर हम प्रकृतिवाद को महत्व दें तो हमारी सारी समस्यायें खुद-ब-खुद दूर हो जायेंगी, यह शाश्वत सत्य है। अगर हम इसे एक दार्शनिक के दृष्टिकोण से देंखें तो यह सारा संसार सारी चीजों से मिलकर बना है और वह सारी चीजें आपस में एक दूसरे को प्रभावित करती हैं, चाहें वह प्रत्यक्ष रूप में करें अथवा अप्रत्यक्ष। एक मनुष्य के पूरे शरीर की तरह यदि शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये तो उससे सारा शरीर बिना प्रभावित हुये नहीं रह सकता। इसी प्रकार इस प्रकृति के सारे तत्व एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और यदि कोई एक तत्व प्रभावित होता है तो इससे पूरा पारिस्थितिकी तन्त्र प्रभावित होता है। अतः आकाश की सुन्दरता को पक्षीविहीन होने से जिस प्रकार यह ग्रामीण सतत् प्रयासरत् हैं, यह अपने आप एक सराहनीय प्रयास है और इससे हमें सबक लेना चाहिये।
ये पक्षी अपने घोंसले इस गांव के अलावा खीरी जनपद में ऐठापुर फार्म के मालिक आलोक शुक्ल के निजी जंगल में काफी तादाद में बनाते हैं। एक खास बात यह कि दुधवा नेशनल पार्क के बाकें ताल के निकट के वृक्षों पर इन पक्षियों की प्रजनन कालोनी विख्यात थी किन्तु सन 2001 से पक्षियो का सह बसेरा उजड़ गया। यानी संरक्षित क्षेत्रो के बजाय ग्रामीण क्षेत्रो में इन चिड़ियों का जीवन चक्र अघिक सफल है। कुल मिलाकर जब आज मानव जनित कारणों से पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर है ऐसे में खीरी जनपद में पक्षियों के यह सुरम्य वास स्थल जीवों के सरक्षण की एक नई राह दिखाते है
प्रदेश में इन पक्षियों के घोसलों के बारे में यदि कोई जानकारी हो तो मुझे सूचित करे ताकि इनके व्यवहार के अघ्ययन व इनके संरक्षण के समुचित प्रयास किये जा सके। (यह लेख हिन्दी व अंग्रेजी की कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है।)
कृष्ण कुमार मिश्र
संपर्क: dudhwajungles@gmail.com
ओपन बिल स्टार्क के सरंक्षण की यह रिपोर्ट तो बहुत रोचक है -के के यह भी बताईयेगा की इनके प्रवास मार्ग और गंतव्य पर भी कुछ जानकारी है ?
ReplyDeletedrarvind3@gmail.com
मिश्र जी, शुक्रिया, किन्तु ये वेबसाइट सरंक्षण को महत्व देगी न कि पर्यटन को, क्या होगा कुछ लोग आयेंगे फ़ोटो खींचेगे और कुछ लेख वगैरह लिख कर भूल जायेंगे, उनका भला अवश्य हो जायेगा, पर परिन्दों को डिस्टरबेन्स ही झेलना पड़ेगा। सामुदायिक सहभागिता से जो हो रहा है वही बेहतर है, मुझे आदरणीय डा० रहमानी के वह शब्द याद है कि मिश्रा इन पक्षियों के सरंक्षण आदि के लिए बिना जरूरत सरकारी योजना व अन्य प्रयास मत करना ये गाँव वालों के हवाले है और सुरक्षित भी रहेंगी।
ReplyDeleteफ़िर भी श्रीमान जी पूरी जानकारी है, रोड मैप बनाना मेरा काम नही है। इसके लिए किसी ट्रेवल एजन्सी की जरूरत होगी!
बहुत अच्छा काम हो रहा है ।
ReplyDeleteaccording to me animals ke liiye jo kuch bhi plans liiye ja rahe hai sooch samagh ke liiye jaye because animals ko abhi hamqari bahut zarurat.
ReplyDeletekrishna je! Aapane bahut hi rochak or inspiring jaankari dee hai.
ReplyDeletePar aapne arvind jee ke sawaal ko misinterpret kiya . Wo birds ke migration root ke bare me puchh rahe the.
krishna je! Aapane bahut hi rochak or inspiring jaankari dee hai.
ReplyDeletePar aapne arvind jee ke sawaal ko misinterpret kiya . Wo birds ke migration root ke bare me puchh rahe the.
Jankari bahut rochak aur upyogi hai. hamhe bhi apne aas pass k pashu-pakshiyon k sanrakshan k liye yogdan dena chahiye taki humari aane wali generation in khoobsurat vanya praniyon se mehroom na ho jaye. Thanks.
ReplyDeleteJankari bahut rochak aur upyogi hai. hamhe bhi apne aas pass k pashu-pakshiyon k sanrakshan k liye yogdan dena chahiye taki humari aane wali generation in khoobsurat vanya praniyon se mehroom na ho jaye. Thanks.
ReplyDeleteachhi jaankari hai par jo main doondh rha hun vo mujhe nahi mil pa rha hai jo hai chidiya sanrakshan kendron ki jaankari. koi aise website btao na jisme mujhe iske baare mein jaankari mil jaae!!!!!!!..............HELP!!!!!! :-(
ReplyDeleteThanks Mishra Ji telling us about the diversity and other important things about Dudhwa National Park.
ReplyDeleteबिहार-पटना में दानापुर कैंटोनमेंट में येही पक्षी हज़ारों की संख्या में घोसले बनाते है क्योंकि गंगा ( घोंघे ० . सुरक्षा. ऊँचे पेड़ मौजूद है . अक्टूबर में आप देख सकते है
ReplyDeletekk mai Chhattisgarh Korba se hu , har sal hamare yaha ye panchi aate hai aur ghosla banate hai aur in ke sanrakshan ke naam par koi nahi dekhane wala mai gao walo ke sath mil kar koshish karta hu in ko bachane ki , har sal 100 /150 bache in ke marte hai gir kar aur kutte unhe kha jate hai , plz help me in ke bacho ko kaise bachaya jaye , ye shreelanka aur kerala south se yaha aate hai , is bare me aur bhi problems hai ,kisi NGO ka add ph no deve jo help kar sake. Sanjay Joshi 9303210004 / 8962599004-5
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